शिमला। पिछले एक दशक में हिमाचल प्रदेश के सेबों ने ना सिर्फ देश बल्कि दुनिया भर में अपनी धाक जमा दी है। हालाँकि हिमाचल प्रदेश में सेब का कारोबार सदियों से चल रहा है लेकिन हाल में आयी इस सफलता का श्रेय काफी हद तक उस नयी व्यवस्था को जाता है जिसके तहत निजी कंपनियों ने इस मार्किट में प्रवेश किया है। वैसे तो निजी कंपनियां आज भी प्रदेश में होने वाले कुल सेब पैदावार का सिर्फ 10 प्रतिशत खरीदती हैं, लेकिन इन्होने ने कुछ ही सालों में मंडी वर्चसव वाली प्रथा को चुनौती देना शुरू कर दिया है। आढ़तियों द्वारा संचालित इन मंडियों में किसानों का किस तरह से शोषण किया जाता था ये अब सबको पता है। इसके ठीक विपरीत निजी कंपनियां – जिनको आम भाषा में कंट्रोल्ड अट्मॉस्फेयर सेंटर्स भी कहा जाता है – एक तय मूल्य और प्रक्रिया के तहत सेबों को खरीदती है।
इसी सिलसिले में अभी हाल ही में एक जानकारी आयी की अडानी एग्री फ्रेश के साथ-साथ अन्य निजी कंपनियों ने मूल्य तय करने से पहले किसानों के साथ होने वाली परामर्श प्रक्रिया शुरू कर दी है। सौहार्दपूर्ण वातावरण में किये गए इस परामर्श के दौरान किसानों के तरफ से दिए गए हर एक बिंदु पर विचार किया गया और उम्मीद है की आने वाले कुछ दिनों में ये निजी कंपनियां भी अपना मूल्य की घोषण कर के सेब खरीदना शुरू कर देंगी। मंडियों के विपरीत ये परामर्श प्रक्रिया हर साल आयोजित की जाती है जहाँ सेबों के मूल्यों से सम्बंधित हर विषय पर विचार किया जाता है।
मंडियों और निजी कंपनियों के काम करने के तरीकों में और भी विभिन्नताएं है। जहाँ मंडियों में किसानों को प्रति बॉक्स सेब की कीमत दी जाती है, वहीँ निजी कंपनियां प्रति किलो के हिसाब से खरीदारी करती है। साथ ही मंडियों में सेब बेचने के बाद किसानो की पैसे मिलने में एक से दो महीने तक का समय लग जाता है, वहीँ निजी कंपनियां दो से तीन दिनों में पैसा सीधे किसानो के बैंक खाते में ट्रांसफर कर देती है। निजी कंपनियां इनके साथ-साथ किसानो को और भी कई तरह की सुविधाएँ देती है जैसे की – मुफ्त या काम कीमत पर खाद और दवाइयां मुहैया कराना, ओला वृष्टि से बचाने के लिए नेट देना, क्रेट की आपूर्ति कराना इत्यादि ।
निजी कंपनियों की बढ़ती लोकप्रियता को देख कर काफी लोग अब ये सवाल करने लगे हैं की क्या निजी कंपनियों के आ जाने की वजह से मंडियां बंद कर देनी चाहिए? इसका सीधा जवाब ये है की मंडियों को बंद करने की जरुरत बिल्कुल नहीं है, हालाँकि मंडी-व्यवस्था की सुधार लाने की काफी ज्यादा आवश्यकता है।
आज भी हिमाचल की कुल पैदावार का 70 से 80 प्रतिशत तक सेब मंडियों में ही बिकता है। निजी कंपनियों के आने के बाद इस मार्किट में एक नयी प्रतिस्पर्धा का आगमन हुआ जिसकी वजह से मंडियों में भी कई तरह के सुधार देखे गए है। सामान्य अर्थशास्त्र के हिसाब से किसी भी एक व्यवस्था पर पूर्णतः निर्भर नहीं होना चाहिए, और कुछ भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रणालियों के द्वारा मार्किट में प्रतिस्पर्धा को फलने फूलने देना चाहिए जिसका सीधा फायदा किसानों और उपभोक्ताओं को होता है।
निजी कंपनियों के आगमन के बाद, मंडियों ने भी मनमानी करने वालों के खिलाफ जरूरी कार्रवाइयां की हैं और किसानों को उनकी पैदावार की उचित कीमत दिलाने में योगदान दिया है। साथ ही कंपनियां भी अपने व्यवहार को तर्कसंगत रखने के लिए कई ऐसे कदम उठा रही है जिसके द्वारा मंडियों से उनका तालमेल बना रहे और सरकार के द्वारा स्थापित नियमों का सुचारु रूप से पालन हो सके।
इस साल हिमाचल में सेब की बम्पर फसल हुई है और अनुमान है की इसका सीधा असर मूल्यों पर भी होगा। देखने लायक जरूरी बात ये होगी की मंडियां और निजी कंपनियां किस तरह से प्रतिस्पर्धात्मक रहते हुए साथ में काम करती हैं ताकि बागबानों का भला होता रहे और हिमाचल के सेब ऐसे ही देश दुनियां में प्रख्यात होते रहें।
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